बचपन ही सही था, माना मुझे मालुम नहीं था

इसे अच्छा तो बचपन था, नाही फिक्र नाही किसिके जिक्र का इल्म् था, उन दिनो होटों पे मुस्कान सच्ची हूआ करती, मेरी माँ दुआ जो करती थी, ये भिड ये लोग सब जुठे, हैं नेताओं के भाषण की तरह, ये सड चुके हैं, बोरियों मैं बंदे राशन की तरह. मुझे किसी का दिलं दुःखाने से डर लगता है, अब तो खुदा के आगे सर झुकाने से डर लगता. खुशियां दो चार दीन रह लेती थी, बिना कागज के उन दिनो, होता सबकूछ पर ना आंख मैं निंद इन दीनो. उन दिनो खामोशि भी बोला करती थी, पर अब तो अल्फाज भी लडखडाते हैं,
ना चल पाते हैं ना बोल पाते हैं, कोई सुंनने वाला ना हो तब बाहर आते हैं. चंद कागजो के सिवा सब कुछ हूआ करता था, सच कहून तो हम जी सकते थे, अब वो हैं जो कभी नही था, पर वो नहीं जो कभी हूआ करता था,

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